Sunday, November 15, 2009

क्या से क्या हो गया!

इज्ज़त बक्षी तमाम उसको
ख़ुद बेईज्ज़त हो गया

लज्जा का सबक पढ़ना चाहा
ख़ुद ही लज्जित हो गया

बात करी जब ईमान की
अपना सा मुँह लेकर रह गया

दिल पे बोझ लिए फिरता हूँ
समझ सके जो उसे ढूंढता ही रह गया

बड़ी उम्मीदे थी ख़ुद से
ता उम्र उन्हें ढोता ही रह गया

अजीब कशमकश में काटी है ज़िन्दगी
रब से यही गिला रह गया

चलते चलते थक सा गया हूँ
एक ठंडी छाव को तरसता रह गया

सोचता था मौत धो देगी गुनाह ज़िन्दगी के
मौत के मरहम से भी महरूम रह गया

क्या क्या संगे खिश्त खा कर भी
लहू के एक कतरे को तरस गया

के धो लूँ गुनाह तमाम अपने
ये आरजू लिए लिए ही निकल गया

अजीब पहेली है ज़िन्दगी भी यारब
इक शब्द के लिए ये सुखनवर भी तरस गया



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