Saturday, November 21, 2009

दुविधा

अब मेरे सब्र का और इन्तेहाँ न लो
परेशानियों की ज़मीन भले ले लो उम्मीदों का आसमान न लो

मन्दिर मस्जिद पीर पंडित सभी से हार चुका हूँ मैं
अब इन्हें मेरे तुम्हारे दरमिया न लो

पैगम्बरों के बोझ तले दबी जाती है दुनिया सारी
इन्हें पालने का अब गरीबो से दाम न लो

रस्मों रिवाजों में फसी इस कायनात में
चैन पाना है नामुमकिन इसका नाम न लो

सुना है ये जाल तुम्हारी माया की कारस्तानी है
एक पागल कह रहा था कल "करुना के सागर" का नाम न लो



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